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मीराबाई ka jivan parichay

मीराबाई ka jivan parichay



         

 

 मीराबाई जोधपुर( मारवाड़) राज्य के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव दूदा की पौत्री थी। इनका जन्म सवंत 1541 माना जाता है । 2 वर्ष की अवस्था में ही मीरा की मां का देहांत हो गया था और उनका लालन-पालन राव दूदा ने मेड़ता में किया ।इनका विवाह उदयपुर(मेवाड़)के प्रसिद्ध राणा सांगा के पुत्र कुंवर भोजराज से हुआ। लेकिन कुछ वर्षों में ही इनके पति का देहांत हो गया कृष्ण भक्ति के रंग में डूबी हुई मेरा ने लोक लाज और कुल की मर्यादा को छोड़कर साधु संतों के साथ मंदिरों में समय बिताना शुरू कर दिया।


ससुराल में कष्ट दिए जाने पर वह मेड़ता चली आई लेकिन वहां पे रहने लायक स्थिति ना होने से तीर्थ तीर्थाटन करते हुए वृंदावन चली गई जहां चैतन्य महाप्रभु के गौडीय संप्रदाय के प्रसिद्ध अनुयाई जीव गोस्वामी से भी उनकी भेंट हुई। अंत समय मे वो द्वारका चली गई, वहां पर 1546 ईस्वी सन् के लगभग उनका देहांत हो गया।

 मीरा ने माधुर्य भाव की भक्ति की रचनाएं की और नारी के सुलभ-वेदना पीड़ा को कृष्ण भक्ति में रंग कर अत्यंत सरस पदों में प्रस्तुत किया मीरा के पदों में नवधा भक्ति और विरह की सभी अवस्थाओं का निरूपण हुआ है। उनके पदों का संकलन " मीरा पदावली  " के नाम से किया गया है । इसके अलावा "नरसीजी को माहेरो",गीत गोविंद की टीका इत्यादि भी मीरा की अन्य रचनाएं है।

भक्ति काल के अनेक अन्य कृष्ण भक्त कवि भी हुए हैं जिन्होंने किसी संप्रदाय में दीक्षित हुए बिना विशुद्ध भक्त की कवि भाव से कृष्ण भक्ति साहित्य का निर्माण किया है ।इनके साहित्य में कृष्णा के प्रति प्रेम और भक्ति भावना का शुद्ध आत्मिक निरूपण किया गया है।

इसी कारण संप्रदाय विशेष से जुड़े हुए रचनाकारों की तरह इनके काव्य में संप्रदाय के सिद्धांतों को प्रकट करने की बाध्यता नहीं दिखाई देती है। ऐसे कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई का साहित्य सर्वाधिक महत्व रखता है।

मीराबाई के द्वारा लिखे गए भजन,पदावली रचनाएं तथा प्रमुख संग्रह आज भी बहुत प्रसिद्ध है। 

मीराबाई के भजन

पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो।। टेक।।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।।
खायो न खरच चोर न लेवे, दिन-दिन बढ़त सवायो।।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।।
"मीरा" के प्रभु गिरधर नागर, हरस हरस जश गायो।।

 

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥



  हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होय।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।
दरद की मारी बन-बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जद बैद सांवरिया होय।



मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छांड़ि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई॥
अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई॥
दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥



राम-नाम-रस पीजै।
मनवा! राम-नाम-रस पीजै।
तजि कुसंग सतसंग बैठि नित, हरि-चर्चा सुणि लीजै।
काम क्रोध मद मोह लोभ कूं, चित से बाहय दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ता के रंग में भीजै।

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