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Life of KABIR | संत कबीर के बारे में | Hindi kavi

 कबीर का जीवन चरित्र |Life of KABIR | Hindi Kavi




साहित्यिक परिचय स्वानुभव के धनी , आत्मविश्वास के प्रतीक , अनुपम साधक , विद्रोही एवं समाजचेता कवि कबीर भक्तिकालीन संत काव्य धारा के आधार स्तम्भ हैं । वे ऐसे युग में उत्पन्न हुए , जो राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक दृष्टियों से न केवल अव्यवस्थित था बल्कि अनेकानेक विकृतियों , अन्तर्विरोधों , अंधविश्वासों , विडंबनाओं आदि से ग्रस्त था । ऐसे समय में भारतीय जनता की अन्तर्निहित शक्ति और अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न कबीर का प्रादुर्भाव अंधकार के जन्मजात शत्रु सूर्य की तरह हुआ । अपने स्वानुभव , सहज प्रतिभा एवं जन - चेतना के सहयोग से उन्होंने ऐसी पंक्तियाँ कह डालीं , जिनमें से अधिकांश आज भी उतनी ही प्रासंगिक एवं महत्त्वपूर्ण हैं , जितनी मध्यकाल में रही होंगी । उन्होंने उपासना का ऐसा मार्ग चलाया , जो हिंदू और मुसलमान दोनों के आडंबर एवं अंधविश्वासपूर्ण , तर्कहीन मान्यताओं का खंडन करता था और उन्हें प्रेम और साधना के सीधे - सच्चे मार्ग पर ले जाना चाहता था । अपने भावों , विचारों एवं सिद्धांतों के प्रचार के लिए कबीर ने जनता की ही सरल , सुबोध , व्यंजक भाषा को अपना माध्यम बनाया , उनका काव्य आज भी विचारोत्तेजक एवं प्रेरणादायक है ।  ।



कबीरदास के जन्म और मृत्यु की तिथियाँ तथा जीवन की घटनाएँ अनिश्चित हैं । कबीरपन्थियों तथा जनसाधारण ने कबीर के जीवन के साथ कुछ ऐसी रहस्यपूर्ण , चमत्कारमयी तथा अलौकिक घटनाएँ जोड़ दी हैं , जिनकी सत्यता का पता लगाना कठिन है । कबीर पंथ के ग्रन्थों तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार , कबीर का जन्म सं . 1455 ( ई . सन् 1398 ) और निधन सन् 1551 ( ई . स . 1491 ) में हुआ । उनका जन्म - स्थान काशी और मृत्यु मगहर कहा जाता है । उनकी जाति और माता - पिता के विषय में भी विविध जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं । कबीर ने अपने ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर अपने को ' जाति जुलाहा नाम कबीरा ' कहा है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि कबीर के माता - पिता जुलाहा जाति के थे और यह जाति नाथपंथी योगियों की शिष्य थी । इस जाति ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था , पर नाथपंथी योगियों के संस्कार इस जाति में अभी तक बने हुए थे । कहा जाता है कि कबीर गुरू रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए थे । उसने लोक - लाज के कारण उन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया । ये नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति को मिले । उन्होंने उनका पालन - पोषण किया । परन्तु कबीरदास की रचनाओं तथा परवर्ती इतिहासकारों के अनुसार यह बात निराधार सिद्ध हो जाती है । अन्य प्रमाणिक मत के अभाव में नीरू और नीमा ही पालन - पोषण करने वाले माता - पिता माने जाते हैं । कबीरदास ने किसी विद्यालय में शिक्षा नहीं पाई थी , वरन् साधु - संगति और अनुभव जन्य ज्ञान प्राप्त किया था । तभी तो वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ करते है में कहता ओखनि की देखी , तू कहता कागद की लेखी ' तथा ' मसि कागद छुऔ नहीं , कलम गही नही हाय ' । नियमित रूप से शिक्षा न मिलने पर भी कबीरदास ने सत्संग से ज्ञानार्जन किया था । गुरु रामानंद की कृपा से सब ज्ञान उनके लिए सुलभ हो गया था । कबीर दास ने सम्भवतः अत्यधिक श्रद्धा और आदर के कारण अपने गुरु का नामोल्लेख नहीं किया है परन्तु विद्वानों की धारणा है कि रामानंद उनके गुरु थे । डॉ . रामकुमार वर्मा , श्री परशुराम चतुर्वेदी आदि विद्वान इस सम्भावना का समर्थन करते हैं । इस बारे में एक दोहा बहुत प्रचलित है

                    भक्ति द्राविड़ ऊपजी , लाये रामानंद । 
              कबीरदास परगट किया , सन्त दीप नव खंड ।।


 कबीर के परिवार के विषय में भी मतभेद है । अनुमान किया जाता है कि उनका लोई नामक स्त्री से विवाह हुआ था , जिससे कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक पुत्री उत्पन्न हुए । बड़ा वंश कबीर का , उपजा पूत कमाल लोकोक्ति तो अभी तक प्रचलित है । कबीरदास का व्यवसाय कपड़ा बुनना था । परन्तु अपने व्यवसाय के प्रति रुचि न होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी । कबीरदास ने अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व की अवहेलना नहीं की , बरन ' यथा - लाभ - संतोष की दृत्ति से अन्त समय तक अपना कार्य करते हुए , एक सादा जीवन व्यतीत किया । अन्य महात्माओं की तरह कबीर के विषय में भी कई आश्चर्यजनक कथाएँ प्रसिद्ध हैं , जिनसे उनमें लोकोत्तर शक्तियों का होना सिद्ध किया जाता है ।




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